Saturday, October 23, 2010

इश्वर से शिकायत

टूटे सितारें जब भी गगन के बंधन से,
मिटे फूल जब भी चमन के आँगन से,
न करना कोई फरियाद, संयम रखना,
रूठे अपने, जब जीवन के अपनेपन से,
(श्री हरीश खेतानी "हरि")


कहने का तात्पर्य यह कि जब हमारी उम्मीदें और सपने टूटते है,
परिवार में से कोई देह का त्याग करता है,
जीवन से कोई हमेंशा के लिए जुदा हो जाता है,
या फिर कोई अपना, किसी भूल या गैरसमज  की वजह से रूठ जाए,
तब दुःख का एहसास स्वाभाविक है,
फिरभी संयम तथा समय को दवा मान कर,
हालातों से समझोता कर लिया जाए तो,
इश्वर से शिकायत रखना नामुमकिन बन जाएंगा,
(श्री हरीश खेतानी "हरि")

दिल का फूल

उल्फ़त की बहारों में, 
हुस्न के चमन में,
प्रेमदिलों की राहों में, 
ख्वाबों, ख्यालों में,
हर हाल में, 
होंठों पे जो गुल मुस्कुरातें है, 
वह सही चाहत के, 
सुहासित सुमन होते है, 
जो सिर्फ दिलों में खिलते है, 
जिसे, 
दिल का फूल कहते है,

(श्री हरीश खेतानी "हरि")

Wednesday, October 20, 2010

आभार कभी निराधार नहीं होना चाहिए,

आभार कभी निराधार नहीं होना चाहिए,
बल्कि उसकी संगीन बुनियाद भी होनी चाहिए,
उसे कोई न कोई आधार के जरिये व्यक्त किया जाए तो वह,
सही मायने में आभार बनता है,
क्योंकि वह अनराधार भाव और भार पूर्वक बना हुआ होना चाहिए,
जो सह और स्व भार तथा भाव से साभार में तबदील हो जाता है,
ऐसे अपार भाव और भार से भरा हुआ आभार का आधार मै,
आपके अमूल सहकार लिए,
आपको सादर समर्प्रित करता हूँ,
आभार!
(श्री हरीश खेतानी "हरि")

मिट गए बेकसूर,

खबर आई उन्की हवाओ से, और हम सो न सके पल भर,
मिलन की गुंजाईश थी, और हम सब्र न कर सके पल भर,
बेवजह कहके अलविदा, "हरि" से जुदा हुई थी वह चुप के से,
जब उन्की डोली गुजरी सामने से, हम जी न सके पल भर,
फूलों की हर ख्वाहिशे खुशबू से हो, ऐसी कोई मजा होती तो महेफिल बना लेते,
पलकों ने हर पल लिज्जत से देखा, अदा में जरा भी लज्जा होती तो शर्मा लेते,
हमने चाहा बेहद, पर मिट गए बेकसूर, जब तेरी डोली हमारी परछाई से गुजरी,
रजा होती तो दिल में समा लेते, मौत से भी बड़ी कोई सजा होती तो भी सह लेते,
(श्री हरीश खेतानी "हरि")

शुभकामनाये

स्नेह के अनुपम भाव,
भावों में, सितारों की हाजिरी,
और शरद पूनम के चाँद से निकलती हुई चांदनी का आभास,
ऐसे माहौल में दिल से निकलती हुई शुभकामनाये,
सभी दोस्तों और रिश्तों को सादर......प्रणाम के साथ...

प्यारा रिश्ता कभी पराया नहीं बन सकता,

प्यारा रिश्ता कभी पराया नहीं बन सकता,

फूल की तरह, उसकी खुशबू दिखाई नहीं देती मगर वह होती जरुर है,

हवा भी होती है मगर दिखाई नहीं देती, जो दिखाई नहीं देती वही इश्वर की संगत होती है,

याद भी दिखाई नहीं देती किन्तु अहसास दिलाती रहती है,

करीब होते है तब न याद होती है न कीमत,

दूर रहते है तब ही इन दो बातों की कदर होती है,

अगर कदर न हो कभी, वह रिश्ता प्यारा नहीं होता,

काश कोई जवाब होता

फूलों की कोई भाषा नहीं होती तो फिर सुहास और रंगत को क्या समझे !
आभ की कोई अभिलाषा नहीं होती तो सितारों की संगत को क्या समझे !
बर्फ की चादर से लिपटी हुई पहाड़ियों, वादिओं को ठण्ड का पता नहीं होता,
धरती की कोई मधुशाला नहीं होती तो झील झरनों की पंगत को क्या समझे!

जमीन पर, चाँद तारों समेत नभ को लाने वाला काश कोई जवाब होता,
मन में भक्ति, शक्ति समेत रभ को लाने वाला काश कोई लाजवाब होता,

(श्री हरीश खेतानी "हरि") 

इश्वर का हस्ताक्षर

संगीन कारण से जो किरण निकलती है,

उसका तेज या प्रकाश का प्रकार कभी कभार ही देखने को मिलता है,

जब देखने को मिले तब उस आकार को इश्वर का हस्ताक्षर समझ लेना,

पर्वत, झरनें, नदियाँ, सागर,

पेड़, पौधे, फूल, पंछी, आकाश, और भी..

यह सब इश्वर के हस्ताक्षर ही तो है,

फूल भी न केवल मुस्कुरा सकते है, बल्कि बोल भी सकते है,

जब उसकी भाषा समझ में आने लगे तब उसे इश्वर का साक्षात्कार मान लेना,

(श्री हरीश खेतानी "हरी")