Sunday, December 2, 2012

कास! आकाश ने कोई एक आकांशा पलकों में बसाई होती,



हँसाना था जितना बस फूलों की तरह दिल को हँसा लिया,
बसाना था जितना खास फलों की तरह पल में बसा लिया,
फिर बसंत, बहारें न जाने कब और कहां हुई नज़रों से बाहर,
कहना था जितना इतिहास हलों की तरह हलक से कह दिया,
कास! आकाश ने कोई एक आकांशा पलकों में बसाई होती,
आँखें दर्द से बेबस बरसती रही दर-ब-दर, बनके बरसात,
नदियाँ अश्कों के जरियें बनके झरनें , सागर में समाती रही,
मगर बसंत को कोई खास वजह न मिली फिर से बनने की,
कास! आकाश ने कोई एक आकांशा पलकों में बसाई होती,

श्री हरीश खेतानी "हरि"

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